जीवन कथाएँ >> वाजिद अली शाह वाजिद अली शाहआनन्द सागर
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अवध के पांचवें बादशाह नवाब वाजिद अली शाह पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘प्रख्यात कथाकार आनंद सागर की एक शब्द सिद्ध औपन्यासिक कृति
है। अवध के पाँचवें बादशाह नवाब वाजिद अली शाह के व्यक्तित्व के
प्रख्यात-अल्पख्यात पक्षों का पुनर्पाठ करती यह रचना तिथियों-तथ्यों के
महाअरण्य के बीच तत्कालीन जीवन बोध का समर्थ शोध करती है। अवध का शासन,
उसकी सामाजिक सक्रियता, सामर्थ्य, कलात्मकता प्रगति के साथ ही
सामंती मूल्यों के साथ ही सामंती मूल्यों के पतन शील प्रतीक और क्रम
पराधीन-परास्त करती गोरी चमड़ी की औपनिवेशिक कूटनीति-इन सबका विदग्ध कथा
विस्तार उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाता है।
‘‘आनंद सागर के इतिहास रस की निष्पत्ति करते हुए वाजिद अली शाह के आख्यान में निहित विलास, आसक्ति, विश्वास, संगीत, काव्य, धर्मनिरपेक्ष सहभागिता, प्रेम एवं उत्सवधर्मिता को सम्यक संतुलन प्रदान किया है। दरबारी संस्कृति, सत्ता विमर्श, अस्मिता, संघर्ष और सामान्य जन के कष्टों को उपन्यासकार ने संवेदना समग्रता के साथ कथा का हिस्सा बनाया है। वाजिद अली शाह, बैन्डन और मरियम आदि चरित्र निश्चित रूप से पाठकों को उद्वेलित तथा सम्मोहित करेंगे।
‘‘भाषा व शिल्प विधान ऐतिहासिक उपन्यासों में एक सुखद परिवर्द्धन के साथ ‘वाजिद अली शाह’ में विकसित हुए हैं। यह रोचक तथ्य है कि नवपूंजीवाद, उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद और सिमटती आत्मीयता से आक्रांत वर्तमान के कई संकेत इस उपन्यास को अर्थवान बनाते हैं। सहसा हम स्वतंत्रता पर मडंराती औपनिवेशक छात्राओं की शिनाख्त करने लगते हैं। आनंद सागर का वर्णन कौशल यहां अपने चरम पर है।
अवध के बहाने एक ऐतिहासिक समय का उत्खनन ‘‘वाजिद अली शाह’’ की विरल उपलब्धि है।’’
‘‘आनंद सागर के इतिहास रस की निष्पत्ति करते हुए वाजिद अली शाह के आख्यान में निहित विलास, आसक्ति, विश्वास, संगीत, काव्य, धर्मनिरपेक्ष सहभागिता, प्रेम एवं उत्सवधर्मिता को सम्यक संतुलन प्रदान किया है। दरबारी संस्कृति, सत्ता विमर्श, अस्मिता, संघर्ष और सामान्य जन के कष्टों को उपन्यासकार ने संवेदना समग्रता के साथ कथा का हिस्सा बनाया है। वाजिद अली शाह, बैन्डन और मरियम आदि चरित्र निश्चित रूप से पाठकों को उद्वेलित तथा सम्मोहित करेंगे।
‘‘भाषा व शिल्प विधान ऐतिहासिक उपन्यासों में एक सुखद परिवर्द्धन के साथ ‘वाजिद अली शाह’ में विकसित हुए हैं। यह रोचक तथ्य है कि नवपूंजीवाद, उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद और सिमटती आत्मीयता से आक्रांत वर्तमान के कई संकेत इस उपन्यास को अर्थवान बनाते हैं। सहसा हम स्वतंत्रता पर मडंराती औपनिवेशक छात्राओं की शिनाख्त करने लगते हैं। आनंद सागर का वर्णन कौशल यहां अपने चरम पर है।
अवध के बहाने एक ऐतिहासिक समय का उत्खनन ‘‘वाजिद अली शाह’’ की विरल उपलब्धि है।’’
सुशील सिद्धार्थ
समृति शेष
बाऊजी के बारे में लिखना मेरे लिए जितना उत्साहपरक है, शायद उतना ही
त्रासद भी....।
लगभग पैंतालिस वर्षों के अंतराल के बाद जब’ वाजिद अली शाह’ के पुनर्प्रकाशन के अवसर पर इसके बारे में कुछ लिखने के लिए कहा तो मैं गहरे पशोपेश में जकड़ा महसूस करने लगा। क्या लिखूं किस रूप में लिखूं....? एक परिश्रमी, मृदुभाषी, स्नेहिल पिता के बारे में जो अपनी छोटी-सी नौकरी में पत्नी और पांच बच्चों के पालन पोषण के लिए दिन-रात खटता था, बड़े-बड़े ख्वाब देखता था, कचहरी के दलदले और भ्रष्ट माहौल में जिंदगी का खासा हिस्सा गुजार कर भी न जाने कितने आदर्श संजोए था, या कि एक बेहद प्रतिभा संपन्न, विलक्षण मेधा और स्मरण शक्ति वाले रहस्य रोमांच की दुनिया में डूब कर भी ऐतिहासिक उपन्यासों के फलक पर अपनी पहचान दर्ज कराने के लिए संघर्षरत था अथवा रामपुर जैसे छोटे से नवाब शहर में हिन्दी साहित्य की अलख जला कर दिल्ली मुंबई तक सक्रिय था।
शायद घालमेल होना लाजमी है, इसलिए पाठकों का क्षमा प्रार्थी हूँ।
श्री आनन्द सागर का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के सम्पन्न परिवार में नवंबर 1930 में हुआ। उनके पिता श्री लोचन प्रसाद एक जाने-माने वकील थे जो कुछ ही समय बाद मेरठ में आकर बस गये। यहाँ उनकी वकालत पूरे शबाब में आ गई। सबसे बड़ा लड़का बी.ए एलएलबी करके बैंक की नौकरी में आ गया था। बाकी दोनों लड़कों का जीवन भरपूर सुविधाओं से परिपूर्ण था। आनन्द सबसे छोटे थे, इसलिए सबसे अधिक चहेते। बग्गी से स्कूल जाते थे। मेरठ लालकुर्ती क्षेत्र में लगभग दोकड़ में 18-20 कमरों की शानदार कोठी थी, जिसका मेहराबदार भव्य द्वार परिवार के वैभव और समृद्धि का आभास देता था।
आनन्द सागर की मां का निधन तो उनके जन्म से छह माह बाद ही हो गया था। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी अपने समय की सुंदर और फैशनेबल महिला थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनका सारा प्यार आनन्द सागर को ही मिला हालांकि कई बार उनमें सौतेलेपन की खटास आ जाती थी।
किंतु ये खुशियां ज्यादा दिन तक न चल पाईं। 9 अप्रैल, 1943 को मात्र पैंतालिस वर्ष की आयु में श्री लोचन प्रसाद का एक लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया। बीमारी के दौरान आय के स्त्रोत सूखने लगे और निधन के बाद तो आमदनी का जरिया बंद ही होना था। अब आर्थिक बदहाली का दौर था। उस पर दूसरी मां भी क्षय रोग से ग्रस हो चलीं। जो कुछ पूंजी थी, वह उनके इलाज में चुक गई। लगभग तीस साल बाद वे भी चल बसीं।
अब उस विशाल भवन में आनन्द अकेले थे। मंझले भाई पहले ही नौकरी के सिलसिले में दिल्ली जा चुके थे कोठी के कुछ हिस्से में किराएदार आ गये, जिसकी धनराशि आनन्द को ही जाती थी।
लगभग सोलह साल की उम्र में आनन्द सागर की आवारगी और उच्छंखलता का दौर शुरू हो गया। आठंवी पास कर चुके थे, आगे पढ़ने में उनका दीदा नहीं लगता था। फिल्में देखना और फिल्मनुमा कहानियाँ और गीत लिखना उनका शौक था। बस, घर के कुछ असबाब और बर्तन बगैरह बेच कर 1946 में वे बम्बई के लिए कूच कर दिये। साथ में ले गये अपनी लिखी कुछ कहानियाँ और गाने। साथ ही निदेशक के लिए तमाम हिदायतें कि अमुख रोल कौन कर सकता है या यह गाना किस गायक से गवाना है।
लगभग एक माह के बम्बई प्रवास के दौरान वे कहां रहे, किससे मिले, इसकी सही जानकारी किसी को नहीं है। मधोक नाम के किसी संगीतकार का जिक्र उन्होंने अवश्य किया था। वहाँ से लौटे तो मंझले भाई ने उन्हें मेरठ नहीं आने दिया। दिल्ली में रहकर ही प्राइवेट तौर पर मैट्रिक की परीक्षा दी और प्रथम क्षेणी में सफलता पाई। उस केन्द्र से उनके सर्वाधिक अंक थे। सामाचार पत्रों में उनके चित्र प्रकाशित हुए। इस बीच उनमें रचनात्मकता का उबाल आ रहा था। भाई का ग्रीष्मकालीन स्थानान्तरण शिमला हो गया। बाउजी बतलाते थे कि पहली गंभीर कहानी उन्होंने वहीं किसी मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर लिखी थी जो किसी पत्र-पत्रिका में छपी थी.....। उनके अव्यवस्थित जीवन के कारण उस पत्रिका की कोई प्रति हमारे पास नहीं है और इस बारे में उनसे पूछने की न मेरी उम्र थी और न ही समझ।
बंधन उन्हें सदैव अस्वीकार थे। इसलिए भाई का संरक्षण उनके लिए बोझ बन गया और वे मेरठ चले आये। देश आजाद हो गया था और धर्म के नाम पर एक मुश्लिम राष्ट्र की स्थापना हो चुकी। जगह-जगह पर दंगे हो रहे थे। दोनों ओर पलायन जारी था। गाड़ियाँ भर-भर के शरणार्थी अनेक शहरों में आ कर बदर की ठोकरें खा रहे थे, जिनके पास न खाने को कुछ था और न ही कोई शरण स्थली। नवयुवक आनन्द सागर ने उस समय जी तोड़ पर स्वयं सेवी संगठनों में काम किया। शायद स्काउट की किसी संस्था से भी वे जुड़ गये थे। उसी की एक निशानी एक तांबे के बिगुल के रूप में आज भी हमारे पास सुरक्षित है।
उन्हें रोजगार की तलाश थी। मेरठ के आईटीआई में क्लर्की की नौकरी मिल गई ! नौकरी का मिलना विवाह का संकेत था। 12 जुलाई, 1948 को वे श्रीमती रमा कुमारी से परिणय सूत्र में बंध गये।
आईटीआई में उनकी मित्रता सत्यवक्ता जी से हुई जो रामपुर नवाब के दीवान के सुपुत्र थे। शराब, जुआ और सिगरेट की दोस्ती अक्सर गहरी होती है। तबादले पर सत्यवक्ता रामपुर आये तो आनन्द सागर को भी वहां लाकर बसा दिया। यह 1949 का साल था। पत्नी और एक पुत्र के पिता के रूप में अब उनका जीवन व्यवस्थित हो रहा था। जल्दी ही प्रथम श्रेणी में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। हिंदी की विशारद परीक्षा में सफलता पाई। इस बीच दीवानी कचहरी में अहलमादी करने लगे।
उनके छिटपुट का दौर अब शुरू हो गया था। लिखते और उन्हें नष्ट कर देते। फिल्में अभी भी उनका पहला शौक था। अच्छी फिल्में कई-कई बार देखना उन्हें पसंद था। अपनी अद्भुद स्मरण शक्ति के चलते फिल्मों के निदेशक, संगीत निदेशक, कलाकारों और गानों को वे अंत तक याद रखते रहे। फिल्मी पत्रिकाओं के लिए कई लेख भी लिखे। ‘सुचित्रा’ नाम से जब माधुरी का प्रकाशन आरंभ हुआ तो उनके कई लेख उसमें छपे। वे केवल याद्दाश्त के आधार पर तथ्यों को संकलित कर लेख लिख दिया करते थे।
शुरूआती दौर में वे रहस्य और रोमांच की ओर कैसे और क्यों आकृष्ट हुये, मेरे लिए कहना कठिन है। शायद फिल्मों के प्रति उनका रुझान और कचहरी में फौजदारी के मुकदमों की सनसनीखेज वारदातों के अनुभव...। बहरहाल 22-23 साल की आयु में उन्होंने पहला जासूसी उपन्यास लिखा। पैंतीस रुपये पारिश्रमिक मिला। प्रकाशन ने मासिक तौर पर नियमित प्रकाशन की योजना बना ली। ठक्कर-कंचन सीरीज लोकप्रिय होने लगी।
पर एक उपन्यास से न तो उनके अंदर का लेखक संतुष्ट था और न ही आर्थिक समर्थन से जीवन सुखी। नतीजतन अगले ही साल उनके तीन उपन्यास प्रति माह प्रकाशित होने लगे, जिससे लगभग दौ सौ रूपये की आमदनी होने लगी जो उस समय अच्छी धनराशि थी। आगामी छह-सात वर्षों में उनके लगभग 125 उपन्यास छप चुके थे। जासूसी उपन्यासों के अतिरिक्त इनमें हल्के-फुल्ले रोमांटिक उपन्यास भी शामिल हैं। दरअसल, उस समय हिंदी में पाकेट बुक्स का चलन आरंभ नहीं हुआ था। रेलवे स्टालों आदि और जनप्रिय गल्प को उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ओम प्रकाश शर्मा और बाऊजी जैसे लोकप्रिय लेखकों से रोमांटिक उपन्यास लिखने को कहा गया।
लेखन का सिलसिला जारी रहा। अर्थ का यह एक नियमित स्त्रोत था जो परिवार के भरण-पोषण के लिए अनिवार्य था। शुरूआती दौर में शायद अंग्रेजी भाषा में जासूसी साहित्य की मान्यता से उन्होंने भी इस क्षेत्र में पदापर्ण किया था। वे अंग्रेजी रहस्य-रोमांच के गंभीर अध्येता थे। गार्डनर, पर्लबक आदि लेखकों की सभी कृतियां उनके पास उपलब्ध थीं।
जल्दी ही वे इस दुनिया से ऊब गये थे। अंदर का लेखक बैचेन था। अपने अंदर की रचनाशीलता को सार्थकता और प्रामाणिकता देने के लिए वह छटपटाहट महशूस कर करते थे। इतिहास उनका दूसरा प्रिय विषय था, उन्हें एक नया क्षितिज आहान करन लगा। जानकारी देना मेरे लिए संभव नहीं है। अमूमन ये जानकारियाँ साहित्यिक मित्रों से मिलती हैं। रामपुर में उनका ऐसा कोई मित्र था ही नहीं। जो केवल जुए और शराब के......। वैसे भी इस नवाबी शहर का मिजाज शायराना था। मुस्लिम परिवारों में शायद घुट्टी के साथ ही शायरी पिलाई जाती थी। हमारे साथ इंटर, बी.ए. करने वाले कई छात्र-छात्रएं अक्सर बड़े शायर होने का दावा करते थे। सभी को खूब दाद मिला करती थी। हम उनसे खूब रश्क करते थे। प्रेम पत्र तक शायरी में ही लिखे जाते थे। बुर्के के अंदर से सरकते हाथ अक्सर इसका आदान-प्रदान करते देखे जा सकते थे। कुछ कुछ ‘मेरे महबूब’ के फिल्मी दृश्यों की तरह....।
‘वाजिद अली शाह’ की रचना 1959-60 में हुई और सन् 1960 में इसका प्रकाशन हुआ। मैं तब आठ-नौ साल का था। बचपन से ही बाऊजी को सुबह-शाम लिखते देखता आया था। पर उन दिनों अक्सर वे मोटी अंग्रेजी किताबों में डूबे नजर आते थे। इस उपन्यास को लिखने में उन्हें छह माह लगे। उपन्यास हाथ से लिखा और कुछ पृष्ठों में संशोधन के बाद बदलाव के अतिरिक्त इसकी एक पाँडुलिपि उन्होंने लिखी थी।
उपन्यास का अच्छा स्वागत हुआ। सभी पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षायें प्रकाशित हुईं। वृंदावन लाल वर्मा जैसे दिग्गज ऐतिहासिक उपन्यासकारों के प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए।
उपन्यास उस समय प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान-नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ‘नेशनल’ ने उन्हें एक मुश्त एक हजार रुपये की धनराशि दी थी। सर्वथा नये और इस इस क्षेत्र के अपरिचित लेखक थे वे। आज सोचता हूं तो हैरान होता हूं तब से कीमतों में साठ-सत्तर फीसदी का इजाफा हो ही गया है। मुझे आज भी स्मरण है कि उस धनराशि से उन्होंने एक सेकेंड हैंड टाइपराइटर, अम्मा के लिए अंगूठी और हमारे लिए कपड़े आदि खरीदे थे। उनके लेखन की दिशा में बदलाव आना लाजमी था। दो वर्षों के भीतर ही उनका दूसरा उपन्यास ‘बिठूर के नाना’ भारतीय ग्रंथ निकेतन, दिल्ली से छपा। नादिर अली शाह के आक्रमण के बाद अपने साथ ले गई बांदी सितारा पर केन्द्रित उनका उपन्यास ‘सितारा’ एक बहुपठित उपन्यास है। यह पहले ‘सरिता’ में क्रमवार छपा था। बाद में पुस्तकाकार रूप में विश्वविजय प्रकाशन ने इसे छापा। इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हीं दिनों वे राजस्थान के बप्पा रावल पर एक महत्वाकांक्षी उपन्यास लिख रहे थे। ‘एकलिंग का दीवान’ उनके मृत्योपरांत प्रकाश ने ही छापा। यह उनकी अंतिम प्रकाशित कृति है। तुगलक के जीवन पर आधारित एक उपन्यास अधूरा है। एक दूसरा अधूरा उपन्यास मृत्यु के बाद आत्माओं के संसार पर आधारित है जो उनका और दरसल हमारे परिवार का निजी अनुभव था। इस पर कभी और......।
जिन दिनों वे ‘एकलिंग का दीवान’ लिख रहे थे, मैं कक्षा ग्यारह-बारह का छात्र था। कभी-कभी कुछ पुस्तकों के उद्धरण नकल करने के लिए वे मुझे दे देते थे। इस उपन्यास के लिए उन्होंने राजस्थान की कई यात्राएं कीं। अत्यंत विशद और गंभीर अध्ययन किया। इस उपन्यास को उन्होंने प्रकाशन के पूर्व राजस्थान इतिहास के अनेक विद्वानों के पास भेजा था। मुझे याद है कि किसी विश्वविद्यालय के इतिहास विभागाध्यक्ष ने लिखा था कि उनके बस में होता तो वे उन्हें इस शोध के लिए डॉक्टरेट की मानद उपाधि दे देते।
1960 के बाद वे टाइपराइटर पर लिखते थे। कई बार दो-तीन उपन्यास एक साथ भी चलते थे-एक कचहरी के टाइपराइटर पर, दूसरा घर में टाइप कर और तीसरा बिस्तर पर हाथ से। उनके किसी संशोधन की आवश्यकता उन्हें महसूस नहीं होती थी। जासूसी उपन्यासों का लेखन जारी था। हांलाकि साल में इने-गिने। सन् 1965 के बाद उन्होंने पांच-छह जासूसी उपन्यास ही लिखे और वे भी किसी आग्रह विशेष पर......उन्हें अपना क्षेत्र मिल गया था।
इस बीच जब जब अवसर मिलता, वे कहानियां और लेख भी लिखते। उनकी कहानियां लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं सरिता द्वारा आयोजित ऐतिहासिक कहानी प्रतियोगिता में उनकी कहानी ‘अजीजन बी’ को दूसरा स्थान प्राप्त हुआ।
श्री आनन्द सागर बेहद प्रतिभा संपन्न लेखक थे। लेखन कर्म से जुड़ा होने के नाते मैं हैरान होता हूँ कि कोई व्यक्ति ‘बिठूर के नाना’ या ‘एकलिंग का दीवान’ जैसे गंभीर और शोधपरक उपन्यास सीधे टाइपराइटर पर कैसे लिख सकता है। उन्होंने लगभग दो सौ जासूसी-रोमांटिक उपन्यास, छह ऐतिहासिक उपन्यास, लगभग पचास लेख और कहानियाँ और एक दर्जन से ज्यादा नाटक लिखे। लगभग सभी नाटक आकाशवाणी से प्रसारित होते थे।
लगभग पैंतालिस वर्षों के अंतराल के बाद जब’ वाजिद अली शाह’ के पुनर्प्रकाशन के अवसर पर इसके बारे में कुछ लिखने के लिए कहा तो मैं गहरे पशोपेश में जकड़ा महसूस करने लगा। क्या लिखूं किस रूप में लिखूं....? एक परिश्रमी, मृदुभाषी, स्नेहिल पिता के बारे में जो अपनी छोटी-सी नौकरी में पत्नी और पांच बच्चों के पालन पोषण के लिए दिन-रात खटता था, बड़े-बड़े ख्वाब देखता था, कचहरी के दलदले और भ्रष्ट माहौल में जिंदगी का खासा हिस्सा गुजार कर भी न जाने कितने आदर्श संजोए था, या कि एक बेहद प्रतिभा संपन्न, विलक्षण मेधा और स्मरण शक्ति वाले रहस्य रोमांच की दुनिया में डूब कर भी ऐतिहासिक उपन्यासों के फलक पर अपनी पहचान दर्ज कराने के लिए संघर्षरत था अथवा रामपुर जैसे छोटे से नवाब शहर में हिन्दी साहित्य की अलख जला कर दिल्ली मुंबई तक सक्रिय था।
शायद घालमेल होना लाजमी है, इसलिए पाठकों का क्षमा प्रार्थी हूँ।
श्री आनन्द सागर का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के सम्पन्न परिवार में नवंबर 1930 में हुआ। उनके पिता श्री लोचन प्रसाद एक जाने-माने वकील थे जो कुछ ही समय बाद मेरठ में आकर बस गये। यहाँ उनकी वकालत पूरे शबाब में आ गई। सबसे बड़ा लड़का बी.ए एलएलबी करके बैंक की नौकरी में आ गया था। बाकी दोनों लड़कों का जीवन भरपूर सुविधाओं से परिपूर्ण था। आनन्द सबसे छोटे थे, इसलिए सबसे अधिक चहेते। बग्गी से स्कूल जाते थे। मेरठ लालकुर्ती क्षेत्र में लगभग दोकड़ में 18-20 कमरों की शानदार कोठी थी, जिसका मेहराबदार भव्य द्वार परिवार के वैभव और समृद्धि का आभास देता था।
आनन्द सागर की मां का निधन तो उनके जन्म से छह माह बाद ही हो गया था। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी अपने समय की सुंदर और फैशनेबल महिला थीं। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनका सारा प्यार आनन्द सागर को ही मिला हालांकि कई बार उनमें सौतेलेपन की खटास आ जाती थी।
किंतु ये खुशियां ज्यादा दिन तक न चल पाईं। 9 अप्रैल, 1943 को मात्र पैंतालिस वर्ष की आयु में श्री लोचन प्रसाद का एक लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया। बीमारी के दौरान आय के स्त्रोत सूखने लगे और निधन के बाद तो आमदनी का जरिया बंद ही होना था। अब आर्थिक बदहाली का दौर था। उस पर दूसरी मां भी क्षय रोग से ग्रस हो चलीं। जो कुछ पूंजी थी, वह उनके इलाज में चुक गई। लगभग तीस साल बाद वे भी चल बसीं।
अब उस विशाल भवन में आनन्द अकेले थे। मंझले भाई पहले ही नौकरी के सिलसिले में दिल्ली जा चुके थे कोठी के कुछ हिस्से में किराएदार आ गये, जिसकी धनराशि आनन्द को ही जाती थी।
लगभग सोलह साल की उम्र में आनन्द सागर की आवारगी और उच्छंखलता का दौर शुरू हो गया। आठंवी पास कर चुके थे, आगे पढ़ने में उनका दीदा नहीं लगता था। फिल्में देखना और फिल्मनुमा कहानियाँ और गीत लिखना उनका शौक था। बस, घर के कुछ असबाब और बर्तन बगैरह बेच कर 1946 में वे बम्बई के लिए कूच कर दिये। साथ में ले गये अपनी लिखी कुछ कहानियाँ और गाने। साथ ही निदेशक के लिए तमाम हिदायतें कि अमुख रोल कौन कर सकता है या यह गाना किस गायक से गवाना है।
लगभग एक माह के बम्बई प्रवास के दौरान वे कहां रहे, किससे मिले, इसकी सही जानकारी किसी को नहीं है। मधोक नाम के किसी संगीतकार का जिक्र उन्होंने अवश्य किया था। वहाँ से लौटे तो मंझले भाई ने उन्हें मेरठ नहीं आने दिया। दिल्ली में रहकर ही प्राइवेट तौर पर मैट्रिक की परीक्षा दी और प्रथम क्षेणी में सफलता पाई। उस केन्द्र से उनके सर्वाधिक अंक थे। सामाचार पत्रों में उनके चित्र प्रकाशित हुए। इस बीच उनमें रचनात्मकता का उबाल आ रहा था। भाई का ग्रीष्मकालीन स्थानान्तरण शिमला हो गया। बाउजी बतलाते थे कि पहली गंभीर कहानी उन्होंने वहीं किसी मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर लिखी थी जो किसी पत्र-पत्रिका में छपी थी.....। उनके अव्यवस्थित जीवन के कारण उस पत्रिका की कोई प्रति हमारे पास नहीं है और इस बारे में उनसे पूछने की न मेरी उम्र थी और न ही समझ।
बंधन उन्हें सदैव अस्वीकार थे। इसलिए भाई का संरक्षण उनके लिए बोझ बन गया और वे मेरठ चले आये। देश आजाद हो गया था और धर्म के नाम पर एक मुश्लिम राष्ट्र की स्थापना हो चुकी। जगह-जगह पर दंगे हो रहे थे। दोनों ओर पलायन जारी था। गाड़ियाँ भर-भर के शरणार्थी अनेक शहरों में आ कर बदर की ठोकरें खा रहे थे, जिनके पास न खाने को कुछ था और न ही कोई शरण स्थली। नवयुवक आनन्द सागर ने उस समय जी तोड़ पर स्वयं सेवी संगठनों में काम किया। शायद स्काउट की किसी संस्था से भी वे जुड़ गये थे। उसी की एक निशानी एक तांबे के बिगुल के रूप में आज भी हमारे पास सुरक्षित है।
उन्हें रोजगार की तलाश थी। मेरठ के आईटीआई में क्लर्की की नौकरी मिल गई ! नौकरी का मिलना विवाह का संकेत था। 12 जुलाई, 1948 को वे श्रीमती रमा कुमारी से परिणय सूत्र में बंध गये।
आईटीआई में उनकी मित्रता सत्यवक्ता जी से हुई जो रामपुर नवाब के दीवान के सुपुत्र थे। शराब, जुआ और सिगरेट की दोस्ती अक्सर गहरी होती है। तबादले पर सत्यवक्ता रामपुर आये तो आनन्द सागर को भी वहां लाकर बसा दिया। यह 1949 का साल था। पत्नी और एक पुत्र के पिता के रूप में अब उनका जीवन व्यवस्थित हो रहा था। जल्दी ही प्रथम श्रेणी में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। हिंदी की विशारद परीक्षा में सफलता पाई। इस बीच दीवानी कचहरी में अहलमादी करने लगे।
उनके छिटपुट का दौर अब शुरू हो गया था। लिखते और उन्हें नष्ट कर देते। फिल्में अभी भी उनका पहला शौक था। अच्छी फिल्में कई-कई बार देखना उन्हें पसंद था। अपनी अद्भुद स्मरण शक्ति के चलते फिल्मों के निदेशक, संगीत निदेशक, कलाकारों और गानों को वे अंत तक याद रखते रहे। फिल्मी पत्रिकाओं के लिए कई लेख भी लिखे। ‘सुचित्रा’ नाम से जब माधुरी का प्रकाशन आरंभ हुआ तो उनके कई लेख उसमें छपे। वे केवल याद्दाश्त के आधार पर तथ्यों को संकलित कर लेख लिख दिया करते थे।
शुरूआती दौर में वे रहस्य और रोमांच की ओर कैसे और क्यों आकृष्ट हुये, मेरे लिए कहना कठिन है। शायद फिल्मों के प्रति उनका रुझान और कचहरी में फौजदारी के मुकदमों की सनसनीखेज वारदातों के अनुभव...। बहरहाल 22-23 साल की आयु में उन्होंने पहला जासूसी उपन्यास लिखा। पैंतीस रुपये पारिश्रमिक मिला। प्रकाशन ने मासिक तौर पर नियमित प्रकाशन की योजना बना ली। ठक्कर-कंचन सीरीज लोकप्रिय होने लगी।
पर एक उपन्यास से न तो उनके अंदर का लेखक संतुष्ट था और न ही आर्थिक समर्थन से जीवन सुखी। नतीजतन अगले ही साल उनके तीन उपन्यास प्रति माह प्रकाशित होने लगे, जिससे लगभग दौ सौ रूपये की आमदनी होने लगी जो उस समय अच्छी धनराशि थी। आगामी छह-सात वर्षों में उनके लगभग 125 उपन्यास छप चुके थे। जासूसी उपन्यासों के अतिरिक्त इनमें हल्के-फुल्ले रोमांटिक उपन्यास भी शामिल हैं। दरअसल, उस समय हिंदी में पाकेट बुक्स का चलन आरंभ नहीं हुआ था। रेलवे स्टालों आदि और जनप्रिय गल्प को उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ओम प्रकाश शर्मा और बाऊजी जैसे लोकप्रिय लेखकों से रोमांटिक उपन्यास लिखने को कहा गया।
लेखन का सिलसिला जारी रहा। अर्थ का यह एक नियमित स्त्रोत था जो परिवार के भरण-पोषण के लिए अनिवार्य था। शुरूआती दौर में शायद अंग्रेजी भाषा में जासूसी साहित्य की मान्यता से उन्होंने भी इस क्षेत्र में पदापर्ण किया था। वे अंग्रेजी रहस्य-रोमांच के गंभीर अध्येता थे। गार्डनर, पर्लबक आदि लेखकों की सभी कृतियां उनके पास उपलब्ध थीं।
जल्दी ही वे इस दुनिया से ऊब गये थे। अंदर का लेखक बैचेन था। अपने अंदर की रचनाशीलता को सार्थकता और प्रामाणिकता देने के लिए वह छटपटाहट महशूस कर करते थे। इतिहास उनका दूसरा प्रिय विषय था, उन्हें एक नया क्षितिज आहान करन लगा। जानकारी देना मेरे लिए संभव नहीं है। अमूमन ये जानकारियाँ साहित्यिक मित्रों से मिलती हैं। रामपुर में उनका ऐसा कोई मित्र था ही नहीं। जो केवल जुए और शराब के......। वैसे भी इस नवाबी शहर का मिजाज शायराना था। मुस्लिम परिवारों में शायद घुट्टी के साथ ही शायरी पिलाई जाती थी। हमारे साथ इंटर, बी.ए. करने वाले कई छात्र-छात्रएं अक्सर बड़े शायर होने का दावा करते थे। सभी को खूब दाद मिला करती थी। हम उनसे खूब रश्क करते थे। प्रेम पत्र तक शायरी में ही लिखे जाते थे। बुर्के के अंदर से सरकते हाथ अक्सर इसका आदान-प्रदान करते देखे जा सकते थे। कुछ कुछ ‘मेरे महबूब’ के फिल्मी दृश्यों की तरह....।
‘वाजिद अली शाह’ की रचना 1959-60 में हुई और सन् 1960 में इसका प्रकाशन हुआ। मैं तब आठ-नौ साल का था। बचपन से ही बाऊजी को सुबह-शाम लिखते देखता आया था। पर उन दिनों अक्सर वे मोटी अंग्रेजी किताबों में डूबे नजर आते थे। इस उपन्यास को लिखने में उन्हें छह माह लगे। उपन्यास हाथ से लिखा और कुछ पृष्ठों में संशोधन के बाद बदलाव के अतिरिक्त इसकी एक पाँडुलिपि उन्होंने लिखी थी।
उपन्यास का अच्छा स्वागत हुआ। सभी पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षायें प्रकाशित हुईं। वृंदावन लाल वर्मा जैसे दिग्गज ऐतिहासिक उपन्यासकारों के प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए।
उपन्यास उस समय प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान-नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ‘नेशनल’ ने उन्हें एक मुश्त एक हजार रुपये की धनराशि दी थी। सर्वथा नये और इस इस क्षेत्र के अपरिचित लेखक थे वे। आज सोचता हूं तो हैरान होता हूं तब से कीमतों में साठ-सत्तर फीसदी का इजाफा हो ही गया है। मुझे आज भी स्मरण है कि उस धनराशि से उन्होंने एक सेकेंड हैंड टाइपराइटर, अम्मा के लिए अंगूठी और हमारे लिए कपड़े आदि खरीदे थे। उनके लेखन की दिशा में बदलाव आना लाजमी था। दो वर्षों के भीतर ही उनका दूसरा उपन्यास ‘बिठूर के नाना’ भारतीय ग्रंथ निकेतन, दिल्ली से छपा। नादिर अली शाह के आक्रमण के बाद अपने साथ ले गई बांदी सितारा पर केन्द्रित उनका उपन्यास ‘सितारा’ एक बहुपठित उपन्यास है। यह पहले ‘सरिता’ में क्रमवार छपा था। बाद में पुस्तकाकार रूप में विश्वविजय प्रकाशन ने इसे छापा। इसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हीं दिनों वे राजस्थान के बप्पा रावल पर एक महत्वाकांक्षी उपन्यास लिख रहे थे। ‘एकलिंग का दीवान’ उनके मृत्योपरांत प्रकाश ने ही छापा। यह उनकी अंतिम प्रकाशित कृति है। तुगलक के जीवन पर आधारित एक उपन्यास अधूरा है। एक दूसरा अधूरा उपन्यास मृत्यु के बाद आत्माओं के संसार पर आधारित है जो उनका और दरसल हमारे परिवार का निजी अनुभव था। इस पर कभी और......।
जिन दिनों वे ‘एकलिंग का दीवान’ लिख रहे थे, मैं कक्षा ग्यारह-बारह का छात्र था। कभी-कभी कुछ पुस्तकों के उद्धरण नकल करने के लिए वे मुझे दे देते थे। इस उपन्यास के लिए उन्होंने राजस्थान की कई यात्राएं कीं। अत्यंत विशद और गंभीर अध्ययन किया। इस उपन्यास को उन्होंने प्रकाशन के पूर्व राजस्थान इतिहास के अनेक विद्वानों के पास भेजा था। मुझे याद है कि किसी विश्वविद्यालय के इतिहास विभागाध्यक्ष ने लिखा था कि उनके बस में होता तो वे उन्हें इस शोध के लिए डॉक्टरेट की मानद उपाधि दे देते।
1960 के बाद वे टाइपराइटर पर लिखते थे। कई बार दो-तीन उपन्यास एक साथ भी चलते थे-एक कचहरी के टाइपराइटर पर, दूसरा घर में टाइप कर और तीसरा बिस्तर पर हाथ से। उनके किसी संशोधन की आवश्यकता उन्हें महसूस नहीं होती थी। जासूसी उपन्यासों का लेखन जारी था। हांलाकि साल में इने-गिने। सन् 1965 के बाद उन्होंने पांच-छह जासूसी उपन्यास ही लिखे और वे भी किसी आग्रह विशेष पर......उन्हें अपना क्षेत्र मिल गया था।
इस बीच जब जब अवसर मिलता, वे कहानियां और लेख भी लिखते। उनकी कहानियां लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं सरिता द्वारा आयोजित ऐतिहासिक कहानी प्रतियोगिता में उनकी कहानी ‘अजीजन बी’ को दूसरा स्थान प्राप्त हुआ।
श्री आनन्द सागर बेहद प्रतिभा संपन्न लेखक थे। लेखन कर्म से जुड़ा होने के नाते मैं हैरान होता हूँ कि कोई व्यक्ति ‘बिठूर के नाना’ या ‘एकलिंग का दीवान’ जैसे गंभीर और शोधपरक उपन्यास सीधे टाइपराइटर पर कैसे लिख सकता है। उन्होंने लगभग दो सौ जासूसी-रोमांटिक उपन्यास, छह ऐतिहासिक उपन्यास, लगभग पचास लेख और कहानियाँ और एक दर्जन से ज्यादा नाटक लिखे। लगभग सभी नाटक आकाशवाणी से प्रसारित होते थे।
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